खेत की तैयारी: सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह में हल से चार से पाँच बार जोताई कर देनी चाहिये, जिससे 25 सेंटीमीटर गहराई तक खेत तैयार हो जाए हल्की तथा अच्छी जुती मिट्टी में आलू कंद अधिक बैठते हैं| प्रत्येक जुताई के बाद पाटा दे देने से मिट्टी समतल तथा भुरभूरी हो जाती है एवं खेत में नमी का संरक्षण भी होता है| अंतिम जुताई के साथ हीं 20 टन प्रति हेक्टर सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में देकर बराबर मिला देने से पैदावार में काफी वृद्धि हो जाती है| मिट्टी: दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टियाँ जिसमें जैविक पदार्थ की बहुलता हो आलू की खेती के लिए उपयुक्त है| अच्छी जल निकासवाली, समतल और उपजाऊ जमीन आलू की खेती के लिए उत्तम मानी जाती है|
तापमान: जब अधिकतम तथा न्यूनतम तापक्रम क्रमशः 30 व 18 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच में रहे तो आलू की बोआई की जा सकती है|
रोपण का समय : अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक आलू की रोपनी की जाती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मुख्यकालीन रोप 5 नवम्बर से 20 नवम्बर तक पूरा कर लें।
किस्में : अपने क्षेत्र की प्रचलित तथा अधिक उत्पादन वाली किस्म के चयन के साथ-साथ फसल पकाव अवधि का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए| ताकि किसान अपनी इच्छित पैदावार प्राप्त कर सके|
बीज की मात्रा: आलू का बीज दर इसके कंद के वजन, दो पंक्तियों के बीच की दूरी तथा प्रत्येक पंक्ति में दो पौधों के बीच की दूरी पर निर्भर करता है। प्रति कंद 10 ग्राम से 30 ग्राम तक वजन वाले आलू की रोपनी करने पर प्रति हें. 10 क्विंटल से लेकर 30 क्विंटल तक आलू के कंद की आवश्यकता होती है।
बीज का उपचार: शीत-भंडार से आलू निकालने के बाद उसे त्रिपाल या पक्की फर्श पर छायादार एवं हवादार जगह में फैलाकर कम से कम एक सप्ताह तक रखा जाता है। सड़े एवं कटे कंद को प्रतिदिन निकालते रहना चाहिए। जब आलू के कंद में अंकुरण निकलना प्रारंभ हो जाय तब रासायनिक बीजोपचार के बाद रोपनी करनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण: पौधे जब 25 से 30 दिनों के हो जाये तो पंक्तियों में निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को साफ कर देना चाहिये और मिट्टी को भुरभूरा कर देना चाहिये| परन्तु व्यावसायिक स्तर पर खेती के लिए खरपतवारनाशी पेंडीमेथालिन 3 लीटर को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव रोपने के पहले काफी लाभदायक होता है|
मिट्टी चढ़ाना: आलू के जड़ और कंद किसी भी अवस्था में दिखाई न दें क्योंकि खुला आलू कंद प्रकाश के सम्पर्क में हरे हो जाते हैं और खाने योग्य नहीं रहते| बीच-बीच में खुले आलु कंदों को मिट्टी से ढकते रहना चाहिये|
सिंचाई: इसमें एक बार में थोड़ा पानी कम अंतराल पर देना अधिक उपज के लिए लाभदायक है। चूँकि खाद की मात्रा ज्यादा रखी जाती है इसलिए रोपनी के 10 दिन बाद परन्तु 20 दिन के अंदर ही प्रथम सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। ऐसा करने से अकुरण शीघ्र होगा तथा प्रति पौधा कंद की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण उपज में दो गुणी वृद्धि हो जाती है।
पोषक तत्व की जरुरत: समय समय पर पौधे को सही मात्रा मे पोषक तत्व की जरुरत पड़ती है | जो की पौधे को बढ़वार व फुटाव प्रदान कर सके| सही पोषक तत्व की उपलब्धता से पौधे ज़्यादा हरे होगे जिसके कारण उपज मे वृधि होगी|महू या चेपा : यह कीट पौधों के मुलायम भागो पर स्थाही रूप से चिपके रहते है | इस कीट के शिशु व वयस्क पत्तियों से रस चूसकर पौधे को कमजोर कर देते है जिससे पत्तिया मुड़कर पीली पड़ जाती है|
महू या चेपा : यह कीट पौधों के मुलायम भागो पर स्थाही रूप से चिपके रहते है | इस कीट के शिशु व वयस्क पत्तियों से रस चूसकर पौधे को कमजोर कर देते है जिससे पत्तिया मुड़कर पीली पड़ जाती है|
सफ़ेद मक्खी: इस कीट के अंडाकार शिशु पत्तियों पर चिपके रहते है| शिशु व वयस्क पत्तियों की निचली सतह से रस चूसकर पौधे को कमजोर कर देते है जिससे पत्तिया मुड़कर पीली पड़ जाती है तथा पूर्व विकसित होने से पहले ही गिर जाती है|
कर्तक कीट/कटवर्म: सूखे मौसम एवं जब पौधे के तने नए होते है तब इस कीट का प्रकोप अधिक होता है| सूखे मौसम एवं जब पौधे के तने नए होते है तब इस कीट का प्रकोप अधिक होता है| हलके स्लेटी रंग की सुंडी रात्रि के समय निकलकर नए पौधों की डंठलों, तनो और शाखाओं से अपना भोजन ग्रहड़ करती है|
आलू कंद स्तम्भ: यह कीट आलू को खेत व भण्डारण ग्रह दोनों जगह नुकशान पहुंचाते है| इस कीट की मादा, पत्तियों की निचली सतह, खुले हुए आलू कंद तथा गोदामों में आलुओ की आँखों में सफ़ेद रंग के अंडे देती है|
अगेती अंगमारी: पौधों की निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे, दूर दूर बिखरे हुए कोणीय आकार के चकत्तों या धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में कवक की गहरी हरीनली वृद्धि से ढक जाते हैं|
पछेती अंगमारी: आलू का पछेती अंगमारी रोग बेहद विनाशकारी है| पत्तियों की निचली सतहों पर सफेद रंग के गोले बन जाते हैं, जो बाद में भूरे व काले हो जाते हैं| पत्तियों के बीमार होने से आलू के कंदों का आकार छोटा हो जाता है और उत्पादन में कमी आ जाती है|
भूरा विगलन: रोग ग्रसित पौधे सामान्य पौधों से बौने होते है और कुछ ही समय में हरे के हरे ही मुरझा जाते है|
काला मस्सा रोग: यह रोग फफूंद की वजह से होता है| इसमें लक्षण कंदो पर ही दिखता है| जिसमे भूरे से काले रंग के मस्सों की तरह उभार दिखाई देते है|
स्कैब रोग: यह रोग फफूंद की वजह से होता है| इसमें लक्षण कंदो में हलके भूरे रंग के फोड़े के समान स्केब पड़ते है|
फूलो का झडना व बढ़वार में कमी
बाजार भाव एवं आवश्यकता को देखते हुए रोपनी के 60 दिन बाद आलू का खुदाई की जाती है। यदि भंडारण के लिए आलू रखना हो तो कंद की परिपक्वता की जाँच के बाद ही खुदाई करें। परिपक्वता की जाँच के लिए कंद को हाथ में रखकर अंगूठा से दवाकर फिसलाया जाता है यदि ऐसा करने पर कंद का छिलका अगल नहीं होता है तो समझा जाता है कि कंद परिपक्व हो गया है।
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